करीब एक साल तक चले विचार विमर्श के बाद भारत के विधि आयोग ने अपनी 262वीं रिपोर्ट 31 अगस्त 2015 को सरकार को सौंपते हुए देश में फांसी की सज़ा को जल्द से जल्द खत्म करने की सिफारिश की। हालांकि, आयोग ने आतंक के मामलों में फांसी को बनाए रखने की बात कही है।
फांसी पर विधि आयोग की यह पहली रिपोर्ट नहीं है। 1967 में आयोग ने अपनी 35वीं रिपोर्ट में फांसी को खत्म किए जाने का विरोध करते हुए कहा था कि “भारत इन हालातों में फांसी समाप्त करने का जोखिम नहीं उठा सकता”।
2014-15 तक विधि आयोग के सदस्यों की सोच बदल चुकी है। लेकिन क्या सरकार और आम जनता से नज़रिए में बदलाव की उम्मीद की जानी चाहिए। रिपोर्ट ऐसे वक्त में आई है जब फांसी दिए जाने के पिछले तीन मामलों में दोषी [अफज़ल (संसद हमला), कसाब (26/11 हमला), याकूब मेमन (93’ ब्लास्ट)] आतंकी हमलों से जुड़े थे।
लेकिन जैसा कि विधि आयोग से अपेक्षित है वह इस विषय को भावनाओं से अधिक कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण से देखता है।
रिपोर्ट में फांसी को लेकर कई स्तरों पर आपत्तियां जताई गई हैं। इसमें सबसे बड़ी आपत्ति इस बात पर है कि फांसी के मामलों में rarest of the rare सिद्धांत का बेहद मनमाने ढंग से प्रयोग हुआ है।
दरअसल 1955 तक हत्या के मामलों में अधिकतर मामलों में फांसी की सज़ा दी जाती रही। इस समय तक अगर न्यायाधीश हत्या के मामले में फांसी के स्थान पर उम्रकैद देता तो इसके पीछे कारण भी दिया जाना जरूरी था।
इसके बाद बड़ा बदलाव आया और 1973 से CrPC की धारा 354(3) में संशोधन लाया गया। इस संशोधन के साथ ही जजों से यह अपेक्षित था कि वह हत्या के मामले में फांसी देते समय इसके लिए विस्तार से कारण भी देंगे। बचन सिंह बनाम पंजाब में निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन की व्याख्या इस रुप में की कि हत्या के मामलों में सामान्यतः उम्रकैद की सज़ा होनी चाहिए और केवल rarest of the rare मामलों में सज़ा-ए-मौत हो।
1980 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ किया कि केवल दुर्लभतम मामलों में ही मौत की सज़ा होनी चाहिए।
समस्या यहीं से शुरु होती है rarest of the rare सिद्धांत के बाद फांसी की सज़ा के मामले में अपील एक लॉटरी की तरह है। ऐसा कई बार देखा गया है जब एक ही तरह के अपराध के लिए एक दोषी को उम्रकैद दी गई जबकि दूसरे को फांसी। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट की अलग-अलग पीठों के फैसलों में असंगति है।
खुद सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कम से कम सात मामलों में न्यायधीशों ने RAREST OF THE RARE के सिद्धांत की गलत व्याख्या की और इन सातों मामलों में फांसी को बरकरार रखा।
फांसी की सज़ा के मामलों में सुनवाई किसी लॉटरी जैसी क्यों है ?
आंकड़ों के मुताबिक फांसी की सज़ा पाने वाले 75% गरीब व सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों से होते हैं जिनके पास अच्छी कानूनी सहायता उपलब्ध नहीं होती। कानूनी सहायता की गुणवत्ता जीवन और मृत्यु का निर्णय कैसे करती है इसका उदाहरण जीता सिंह के मामले से भी सामने आता है।
जीता सिंह, कश्मीरा सिंह और हरबंस सिंह को एक ही परिवार के चार लोगों की हत्या का दोषी पाया गया। इलाहबाद हाई कोर्ट ने तीनों को मौत की सज़ा सुनाई। तीनों ने अलग-अलग अपीलें दाखिल की। जीता सिंह को फांसी की सज़ा हुई, जबकि कश्मीरा सिंह का मामला सुनने वाली अन्य पीठ ने फांसी को उम्रकैद में बदल दिया। हरबंस सिंह की फांसी को भी अंततः उम्रकैद में बदल दिया गया।
इस तरह के मामले और भी हैं लेकिन इसमें सबसे ताज़ा घटना देविंदर पाल सिंह भुल्लर से जुड़ी है। मार्च 2014 में पूर्व खालिस्तानी उग्रवादी की फांसी को सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में बदल दिया। जबकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने 2013 में समान तथ्यों पर ही भुल्लर की फांसी को बरकरार रखा था।
दया याचिका के निपटारे में देरी
सभी कानूनी विकल्प खत्म होने के बाद कैदी और फांसी के फंदे के बीच सिर्फ एक कदम बाकी रह जाता है। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति और 161 के तहत राज्यपाल फांसी को उम्रकैद में बदल सकते हैं। इस मामले में भी राष्ट्रपति या राज्यपाल मंत्रिमंडल के परामर्श पर निर्णय लेने के लिए बाध्य हैं। गृह मंत्रालय द्वारा किसी निर्णय पर पहुंचने में भी 12-13 साल तक का समय लगता देखा गया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए 21 जनवरी 2014 को भारत के मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने 15 कैदियों की फांसी को उम्रकैद में बदल दिया। इन कैदियों में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के दोषी भी शामिल थे।
सरकारी प्रक्रिया में होने वाली देरी का सबसे बड़ा नमूना बंधु बाबूराव तिडके का मामला है। तिडके की दया याचिका गृह मंत्रालय को 2007 में प्राप्त हुई। 2012 में गृह मंत्रालय के सुझाव पर राष्ट्रपति ने तिडके की फांसी को उम्रकैद में बदलने का निर्णय लिया, लेकिन मंत्रालय इस बात से बेखबर था कि तिडके पाँच साल पहले 18 अक्तूबर 2007 को जेल में ही दम तोड़ चुका था।
राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं-
राष्ट्रपति | स्वीकार की गई दया याचिकाएं | खारिज की गई दया याचिकाएं | कुल | |
1. | राजेंद्र प्रसाद | 180 | 1 | 181 |
2. | सर्वपल्ली राधाकृष्णन | 57 | 0 | 57 |
ज़ाकिर हुसैन | 22 | 0 | 22 | |
4. | वी.वी गिरि | 3 | 0 | 3 |
5. | फखरुद्दीन अली अहमद | उपलब्ध नहीं | उपलब्ध नहीं | 0 |
6. | एन संजीवा रेड्डी | उपलब्ध नहीं | उपलब्ध नहीं | 0 |
7. | ज़ैल सिंह | 2 | 30 | 32 |
8. | आर. वेंकटरमण | 5 | 45 | 50 |
9. | एस.डी शर्मा | 0 | 18 | 18 |
10. | के.आर. नारायणन | 0 | 0 | 0 |
11. | ए पी जे कलाम | 1 | 1 | 2 |
12. | प्रतिभा पाटील | 34 | 5 | 39 |
13. | प्रणब मुखर्जी | 2 | 31 | 33 |
आतंकवाद के मामलों में फांसी पर रोक नहीं
रिपोर्ट में फिलहाल आतंकवाद के दोषियों के लिए फांसी के प्रावधान को बनाए रखने की बात कही गई है, हालांकि, खुद आयोग ने कहा कि सैद्धांतिक रुप से वह हत्या के आम दोषी और आतंक के दोषी के बीच भेद नहीं करती लेकिन यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है इसलिए नीति निर्माताओं को ही इस पर विचार करना चाहिए। हालांकि, आतंकवाद के मामलों में भी निचली अदालतों के फैसलों पर आँख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। अहमदाबाद के अक्षरधाम मंदिर में 2002 के आतंकी हमले में निचली अदालत और हाईकोर्ट से फांसी की सज़ा पाए आदमभाई सुलेमानभाई अजमेरी समेत तीनों आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष पाया और रिहाई के आदेश दिए।
वैश्विक उदाहरण
नेपाल और श्रीलंका का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि भारत से कहीं ज्यादा आतंक से प्रभावित देश भी फांसी को खत्म करने की तरफ बढ़ रहे हैं। कई सालों से माओवाद से जूझ रहे नेपाल ने मौत की सज़ा को समाप्त कर दिया है। नेपाल में आखिरी बार फांसी की सज़ा 1979 में दी गई थी। भूटान भी अपने यहाँ मौत की सज़ा को समाप्त कर चुका है। दो दशक तक गृहयुद्ध के शिकार रहे श्रीलंका ने भी भले ही कानूनी रुप से फांसी की सज़ा को खत्म नहीं किया हो लेकिन 1976 से अब तक किसी को फांसी की सज़ा को तामील नहीं किया गया है। दुनिया में कम से कम 140 देश ऐसे है जिनमें या तो मौत की सज़ा को कानून से हटाया जा चुका है या सैद्धांतिक रुप से मौत की सज़ा पर रोक लगाई जा चुकी है।
विधि आयोग ने इस बात पर भी नाखुशी जताई है कि आपराधिक मामलों में सरकार की भूमिका केवल दोषी को दंडित करने तक ही सीमित रह गई है। अपराध के लिए दंड आवश्यक है लेकिन इसे प्रतिशोध की तरह लागू नहीं किया जा सकता। प्रतिशोधात्मक न्याय पर ज़ोर देते-देते पीड़ितों के पुनर्वास और उन्हें राहत दिए जाने की परिकल्पना पीछे छूट चुकी है।
अध्यक्ष समेत नौ सदस्यों वाले विधि आयोग में से तीन सदस्यों ने फांसी को खत्म किए जाने के मामले में असहमति जताई है जिनमें से दो सदस्य सरकार के प्रतिनिधि हैं। यह बताता है कि सरकार दवारा रिपोर्ट पर निकट भविष्य में किसी तरह की कार्रवाई की कोई संभावना नहीं है लेकिन यह विधि आयोग की सिफारिशें आने वाले दिनों में बहस के नज़रिए को ज़रूर बदलेगी.